बैक्टीरिया से होने वाले रोग
रोग का नाम | रोगाणु का नाम | प्रभावित अंग |
लक्षण
|
हैजा | बिबियो कोलेरी | पाचन तंत्र | उल्टी व दस्त, शरीर में ऐंठन एवं डिहाइड्रेशन |
टी. बी. | माइक्रोबैक्टीरियम ट्यूबरक्लोसिस | फेफड़े | खांसी, बुखार, छाती में दर्द, मुँह से रक्त आना |
कुकुरखांसी | वैसिलम परटूसिस | फेफड़ा | बार-बार खांसी का आना |
न्यूमोनिया | डिप्लोकोकस न्यूमोनियाई | फेफड़े | छाती में दर्द, सांस लेने में परेशानी |
ब्रोंकाइटिस | जीवाणु | श्वसन तंत्र | छाती में दर्द, सांस लेने में परेशानी |
प्लूरिसी | जीवाणु | फेफड़े | छाती में दर्द, बुखार, सांस लेने में परेशानी |
प्लेग | पास्चुरेला पेस्टिस | लिम्फ गंथियां | शरीर में दर्द एवं तेज बुखार, आँखों का लाल होना तथा गिल्टी का निकलना |
डिप्थीरिया | कोर्नी वैक्ट्रियम | गला | गलशोथ, श्वांस लेने में दिक्कत |
कोढ़ | माइक्रोबैक्टीरियम लेप्र | तंत्रिका तंत्र | अंगुलियों का कट-कट कर गिरना, शरीर पर दाग |
टाइफायड | टाइफी सालमोनेल | आंत | बुखार का तीव्र गति से चढऩा, पेट में दिक्कत और बदहजमी |
टिटेनस | क्लोस्टेडियम टिटोनाई | मेरुरज्जु | मांसपेशियों में संकुचन एवं शरीर का बेडौल होना |
सुजाक | नाइजेरिया गोनोरी | प्रजनन अंग | जेनिटल ट्रैक्ट में शोथ एवं घाव, मूत्र त्याग में परेशानी |
सिफलिस | ट्रिपोनेमा पैडेडम | प्रजनन अंग | जेनिटल ट्रैक्ट में शोथ एवं घाव, मूत्र त्याग में परेशानी |
मेनिनजाइटिस | ट्रिपोनेमा पैडेडम | मस्तिष्क | सरदर्द, बुखार, उल्टी एवं बेहोशी |
इंफ्लूएंजा | फिफर्स वैसिलस | श्वसन तंत्र | नाक से पानी आना, सिरदर्द, आँखों में दर्द |
ट्रैकोमा | बैक्टीरिया | आँख | सरदर्द, आँख दर्द |
राइनाटिस | एलजेनटस | नाक | नाक का बंद होना, सरदर्द |
स्कारलेट ज्वर | बैक्टीरिया | श्वसन तंत्र | बुखार |
वायरस से होने वाले रोग
रोग का नाम | प्रभावित अंग | लक्षण |
गलसुआ | पेरोटिड लार ग्रन्थियां | लार ग्रन्थियों में सूजन, अग्न्याशय, अण्डाशय और वृषण में सूजन, बुखार, सिरदर्द। इस रोग से बांझपन होने का खतरा रहता है। |
फ्लू या एंफ्लूएंजा | श्वसन तंत्र | बुखार, शरीर में पीड़ा, सिरदर्द, जुकाम, खांसी |
रेबीज या हाइड्रोफोबिया | तंत्रिका तंत्र | बुखार, शरीर में पीड़ा, पानी से भय, मांसपेशियों तथा श्वसन तंत्र में लकवा, बेहोशी, बेचैनी। यह एक घातक रोग है। |
खसरा | पूरा शरीर | बुखार, पीड़ा, पूरे शरीर में खुजली, आँखों में जलन, आँख और नाक से द्रव का बहना |
चेचक | पूरा शरीर विशेष रूप से चेहरा व हाथ-पैर | बुखार, पीड़ा, जलन व बेचैनी, पूरे शरीर में फफोले |
पोलियो | तंत्रिका तंत्र | मांसपेशियों के संकुचन में अवरोध तथा हाथ-पैर में लकवा |
हार्पीज | त्वचा, श्लष्मकला | त्वचा में जलन, बेचैनी, शरीर पर फोड़े |
इन्सेफलाइटिस | तंत्रिका तंत्र | बुखार, बेचैनी, दृष्टि दोष, अनिद्रा, बेहोशी। यह एक घातक रोग है |
प्रमुख अंत: स्रावी ग्रंथियां एवं उनके कार्ये
ग्रन्थि का नाम | हार्मोन्स का नाम | कार्य |
पिट्यूटरी ग्लैंड या पियूष ग्रन्थि | सोमैटोट्रॉपिक हार्मोन थाइरोट्रॉपिक हार्मोन एडिनोकार्टिको ट्रॉपिक हार्मोन फॉलिकल उत्तेजक हार्मोन ल्यूटिनाइजिंग हार्मोन एण्डीड्यूरेटिक हार्मोन | कोशिकाओं की वृद्धि का नियंत्रण करता है। थायराइड ग्रन्थि के स्राव का नियंत्रण करता है। एड्रीनल ग्रन्थि के प्रान्तस्थ भाग के स्राव का नियंत्रण करता है। नर के वृषण में शुक्राणु जनन एवं मादा के अण्डाशय में फॉलिकल की वृद्धि का नियंत्रण करता है। कॉर्पस ल्यूटियम का निर्माण, वृषण से एस्ट्रोजेन एवं अण्डाशय से प्रोस्टेजन के स्राव हेतु अंतराल कोशिकाओं का उद्दीपन शरीर में जल संतुलन अर्थात वृक्क द्वारा मूत्र की मात्रा का नियंत्रण करता है। |
थायराइड ग्रन्थि | थाइरॉक्सिन हार्मोन | वृद्धि तथा उपापचय की गति को नियंत्रित करता है। |
पैराथायरायड ग्रन्थि | पैराथायरड हार्मोन कैल्शिटोनिन हार्मोन | रक्त में कैल्शियम की कमी होने से यह स्रावित होता है। यह शरीर में कैल्शियम फास्फोरस की आपूर्ति को नियंत्रित करता है। रक्त में कैल्शियम अधिक होने से यह मुक्त होता है। |
एड्रिनल ग्रन्थि
| ग्लूकोर्टिक्वायड हार्मोन मिनरलोकोर्टिक्वायड्स हार्मोन एपीनेफ्रीन हार्मोन नोरएपीनेफ्रीन हार्मोन | कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन एवं वसा उपापचय का नियंत्रण करता है। वृक्क नलिकाओं द्वारा लवण का पुन: अवशोषण एवं शरीर में जल संतुलन करता है। ब्लड प्रेशर को कंट्रोल करता है। ब्लड प्रेशर को कंट्रोल करता है। |
अग्नाशय की लैगरहेंस की | इंसुलिन हार्मोन | रक्त में शुगर की मात्रा को नियंत्रित करता है। |
द्विपिका ग्रन्थि | ग्लूकागॉन हार्मोन | रक्त में शुगर की मात्रा को नियंत्रित करता है। |
अण्डाशय ग्रन्थि | एस्ट्रोजेन हार्मोन प्रोजेस्टेरॉन हार्मोन रिलैक्सिन हार्मोन | मादा अंग में परिवद्र्धन को नियंत्रित करता है। स्तन वृद्धि, गर्भाशय एवं प्रसव में होने वाले परिवर्तनों को नियंत्रित करता है। प्रसव के समय होने वाले परिवर्तनों को नियंत्रित करता है। |
वृषण ग्रन्थि | टेस्टेरॉन हार्मोन | नर अंग में परिवद्र्धन एवं यौन आचरण को नियंत्रित करता है। |
विटामिन की कमी से होने वाले रोग
विटामिन |
रोग
| स्रोत |
विटामिन ए | रतौंधी, सांस की नली में परत पडऩा | मक्खन, घी, अण्डा एवं गाजर |
विटामिन बी1 | बेरी-बेरी | दाल खाद्यान्न, अण्डा व खमीर |
विटामिन बी2 | डर्मेटाइटिस, आँत का अल्सर,जीभ में छाले पडऩा | पत्तीदार सब्जियाँ, माँस, दूध, अण्डा |
विटामिन बी3 | चर्म रोग व मुँह में छाले पड़ जाना | खमीर, अण्डा, मांस, बीजवाली सब्जियाँ, हरी सब्जियाँ आदि |
विटामिन बी6 | चर्म रेग | दूध, अंडे की जर्दी, मटन आदि |
औषधियाँ
औषधियाँ रोगों के इलाज में काम आती हैं। प्रारंभ में औषधियाँ पेड़-पौधों, जीव जंतुओं से प्राप्त की जाती थीं, लेकिन जैसे-जैसे रसायन विज्ञान का विस्तार होता गया, नए-नए तत्वों की खोज हुई तथा उनसे नई-नई औषधियाँ कृत्रिम विधि से तैयार की गईं।
औषधियों के प्रकार (Kinds of drugs)
- अंत:स्रावी औषधियाँ (Endrocine Drugs)- ये औषधियाँ मानव शरीर मे प्राकृतिक हारमोनों के कम या ज्यादा उत्पादन को संतुलित करती हैं। उदाहरण- इंसुलिन का प्रयोग डायबिटीज़ के इलाज के लिए किया जाता है।
- एंटीइंफेक्टिव औषधियाँ (Anti-Infective Drugs) - एंटी-इंफेक्टिव औषधियों को एंटी-बैक्टीरियल, एंटी वायरल अथवा एंटीफंगल के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। इनका वर्गीकरण रोगजनक सूक्ष्मजीवियों के प्रकार पर निर्भर करता है। ये औषधियाँ सूक्ष्मजीवियों की कार्यप्रणाली में हस्तक्षेप करके उन्हें समाप्त कर देती हैं जबकि मानव शरीर इनसे अप्रभावित रहता है।
- एंटीबायोटिक्स (Antibiotics) - एंटीबायोटिक्स औषधियाँ अत्यन्त छोटे सूक्ष्मजीवियों, मोल्ड्स, फन्जाई (fungi) आदि से बनाई जाती हैं। पेनिसिलीन, ट्रेटासाइक्लिन, सेफोलोस्प्रिन्स, स्ट्रेप्टोमाइसिन, जेन्टामाइसिन आदि प्रमुख एंटीबायोटिक औषधियाँ हैं।
- एंटी-वायरल औषधियाँ (Anti-Virul Drugs) - ये औषधियाँ मेहमान कोशिकाओं में वायरस के प्रवेश को रोककर उसके जीवन चक्र को प्रभावित करती हैं। ये औषधियाँ अधिकांशता रोगों को दबाती ही हैं। एड्स संक्रमण के मामलों में अभी तक किसी भी प्रभावी औषधि का निर्माण संभव नहीं हो सका है।
- वैक्सीन (Vaccine) - वैक्सीन का प्रयोग कनफेड़ा (Mumps), छोटी माता, पोलियो और इंफ्लूएंजा जैसे रोगों में, एंटी-वायरल औषधि के रूप में किया जाता है। वैक्सीनों का निर्माण जीवित अथवा मृत वायरसों से किया जाता है। प्रयोग के पूर्व इनका तनुकरण किया जाता है। वैक्सीन के शरीर में प्रवेश से मानव इम्यून प्रणाली का उद्दीपन होता है जिससे एंडीबॉडीज़ का निर्माण होता है। ये एंटीबॉडीज़ शरीर को समान प्रकार के वायरस के संक्रमण से बचाती हैं।
- एंटी-फंगल औषधियाँ (Anti-fungal Drugs) - एंटी फंगल औषधियाँ कोशिका भित्ति में फेरबदल करके फंगल कोशिकाओं को चुनकर नष्टï कर देती हैं। कोशिका के जीव पदार्थ का स्राव हो जाता है और वह मृत हो जाती है।
- कार्डियोवैस्कुलर औषधियाँ- ये औषधियाँ हृदय और रक्त वाहिकाओं को प्रभावित करती हैं। इनका वर्गीकरण उनकी क्रिया के आधार पर किया जाता है। एंटीहाइपरटेन्सिव औषधियाँ रक्त वाहिकाओं को फैलाकर रक्तचाप पैदा कर देती हैं। इस तरह से संवहन प्रणाली में हृदय से पंप करके भेजे गए रक्त की मात्रा कम हो जाती है। एंटीआरिदमिक औषधियाँ (Antiaryrrythmic drugs) हृदय स्पंदनों को नियमित करके हृदयाघात से मानव शरीर को बचाती हैं।
रक्त को प्रभावित करने वाली औषधियाँ
- एंटी-एनीमिक औषधियाँ (Antianemic drugs) जिनमें कुछ विटामिन अथवा आइरन शामिल हैं, लाल रक्त कणिकाओं के निर्माण को बढ़ावा देती हैं।
- एंटीकोएगुलेंट औषधियाँ (Anticoagulants drugs)- हेपारिन जैसी औषधियाँ रक्त जमने की प्रक्रिया को घटाकर रक्त संचरण को सुचारू करती हैं।
- थ्रॉम्बोलिटिक औषधियाँ (Thrombolytics drugs) - ये औषधियाँ रक्त के थक्कों को घोल देती हैं जिनसे रक्त वाहिकाओं को जाम होने का खतरा होता है। रक्त वाहिकाओं में ब्लॉकेड की वजह से हृदय व मस्तिष्क को रक्त व ऑक्सीजन की आपूर्ति नहीं हो पाती है।
केंद्रीय स्नायु तंत्र की औषधियाँ (Central Nervous System Drugs) -
ये वे औषधियाँ हैं जो मेरूदण्ड और मस्तिष्क को प्रभावित करती हैं। इनका प्रयोग तंत्रिकीय और मानसिक रोगों के इलाज में किया जाता है। उदाहरण के लिए एंटी-एपीलेप्टिक औषधियाँ (antiepilyptic drugs) मष्तिष्क के अतिउत्तेजित क्षेत्रों की गतिविधियों को कम करके मिर्गी के दौरों को समाप्त कर देती हैं। एंटी-साइकोटिक औषधियाँ (anti-pcychotic drugs) सीजोफ्रेनिया (schizophrenia) जैसे मानसिक रोगों के इलाज मेंं काम आती हैं। एंटी-डिप्रेसेंट औषधियाँ (anti-depressent drugs) मानसिक अवसाद की स्थिति को समाप्त करती हैं।
ये वे औषधियाँ हैं जो मेरूदण्ड और मस्तिष्क को प्रभावित करती हैं। इनका प्रयोग तंत्रिकीय और मानसिक रोगों के इलाज में किया जाता है। उदाहरण के लिए एंटी-एपीलेप्टिक औषधियाँ (antiepilyptic drugs) मष्तिष्क के अतिउत्तेजित क्षेत्रों की गतिविधियों को कम करके मिर्गी के दौरों को समाप्त कर देती हैं। एंटी-साइकोटिक औषधियाँ (anti-pcychotic drugs) सीजोफ्रेनिया (schizophrenia) जैसे मानसिक रोगों के इलाज मेंं काम आती हैं। एंटी-डिप्रेसेंट औषधियाँ (anti-depressent drugs) मानसिक अवसाद की स्थिति को समाप्त करती हैं।
एंटीकैंसर औषधियाँ (Anticancer Drugs)-
ये औषधियाँ कुछ कैंसरों को अथवा उनकी तीव्र वृद्धि और फैलाव को रोकती हैं। ये औषधियाँ सभी कैंसरों के लिए कारगर नहीं होती हैं। पित्त की थैली, मस्तिष्क, लिवर अथवा हड्डïी इत्यादि के कैंसरों के लिए अलग-अलग औषधियाँ होती हैं। ये औषधियाँ कुछ विशेष तंतुओं अथवा अंगों के लिए विशिष्टï होती हैं। एंटी कैंसर औषधियाँ विशेष कैंसर कोशिकाओं में हस्तक्षेप करके अपना कार्य अंजाम देती हैं।
ये औषधियाँ कुछ कैंसरों को अथवा उनकी तीव्र वृद्धि और फैलाव को रोकती हैं। ये औषधियाँ सभी कैंसरों के लिए कारगर नहीं होती हैं। पित्त की थैली, मस्तिष्क, लिवर अथवा हड्डïी इत्यादि के कैंसरों के लिए अलग-अलग औषधियाँ होती हैं। ये औषधियाँ कुछ विशेष तंतुओं अथवा अंगों के लिए विशिष्टï होती हैं। एंटी कैंसर औषधियाँ विशेष कैंसर कोशिकाओं में हस्तक्षेप करके अपना कार्य अंजाम देती हैं।
रक्त
मानव शरीर में संचरण करने वाला तरल पदार्थ जो शिराओं के द्वारा ह्दय में जमा होता है और धमनियों के द्वारा पुन: ह्दय से संपूर्ण शरीर में परिसंचरित होता है, रक्त कहलाता है।
रक्त के विभिन्न अवयव
(1) प्लाज्मा- यह हल्के पीले रंग का रक्त का तरल भाग होता है, जिसमें 90 फीसदी जल, 8 फीसदी प्रोटीन तथा 1 फीसदी लवण होता है।
(2) लाल रक्त कण- यह गोलाकार,केन्द्रक रहित और हीमोग्लोबिन से युक्त होता है। इसका मुख्य कार्य ऑक्सीजन एवं कार्बन डाईऑक्साइड का संवहन करना है। इसका जीवनकाल 120 दिनों का होता है।
(3) श्वेत रक्त कण- इसमें हीमोग्लोबिन का अभाव पाया जाता है। इसका मुख्य कार्य शरीर की रोगाणुओं से रक्षा के लिए प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाना होता है। इनका जीवनकाल 24 से 30 घंटे का होता है।
(4) प्लेट्लेट्स- ये रक्त कोशिकाएं केद्रक रहित एवं अनिश्चित आकार की होती हैं। इनका मुख्य कार्य रक्त को जमने में मदद देना होता है।
रक्त का कार्य-
रक्त का कार्य ऑक्सीजन को फेफड़े से लेकर कोशिकाओं तक तथा कोशिकाओं से कार्बन डाईऑक्साइड को लेकर फेफड़ों तक पहुँचाना होता है। रक्त शरीर के तापक्रम को संतुलित बनाये रखता है। रक्त शरीर में उत्पन्न अपशिष्ट व हानिकारक पदार्र्थों को एकत्रित करके मूत्र तथा पसीने के रूप में शरीर से बाहर पहुँचाने में मदद करता है।
रक्त समूह- रक्त समूह की खोज लैंडस्टीनर ने की थी। रक्त चार प्रकार के होते हैं- A, B, Ab और o।
(1) रक्त समूह AB सर्व प्राप्तकर्ता वर्ग होता है, अर्थात वह किसी भी व्यक्ति का रक्त ग्रहण कर सकता है।
(2) रक्त समूह O सर्वदाता वर्ग होता है। अर्थात वह किसी भी रक्त समूह वाले व्यक्ति को रक्तदान कर सकता है। किंतु वह सिर्फ O समूह वाले व्यक्ति से ही रक्त प्राप्त कर सकता है।
शरीर के तंत्र (Systems of Body)
प्रत्येक कार्य के लिए कई अंग मिलकर एक तंत्र बनाते हैं जैसे भोजन के पाचन के लिए पाचनतंत्र (Digestive system), श्वसन के लिए श्वसन तंत्र आदि।
शरीर के अंगों को उनकी क्रियाओं के अनुसार कुछ प्रमुख तंत्रों में निम्नलिखित प्रकार से विभाजित किया गया है-
- पाचन तंत्र ( Digestive system ) - पाचन तंत्र में मुख, ग्रासनली, आमाशय, पक्वाशय, यकृत, छोटी आँत, बड़ी आँत इत्यादि होते हैं। पाचन तंत्र में भोजन के पचने की क्रिया होती है। भोजन में हम मुख्य रूप से प्रोटीन, कार्बोहाइ़ड़्रेट और वसा लेते हैं। इनका पाचन पाचन तंत्र में उपस्थिति एन्जाइम व अम्ल के द्वारा होता है।
- श्वसन तंत्र (respiratory system)- श्वसन तंत्र में नासा कोटर कंठ, श्वासनली, श्वसनी, फेंफड़े आते हैं। सांस के माध्यम से शरीर के प्रत्येक भाग में ऑक्सीजन पहुँचता है तथा कार्बन डाईऑक्साइड बाहर निकलती है। रक्त श्वसन तंत्र में में सहायता करता है। शिराएं अशुद्ध रक्त का वहन करती हैं और धमनी शुद्ध रक्त विभिन्न अंगों में पहुँचाती है।
- उत्सर्जन तंत्र (Excretory system) - उत्सर्जन तंत्र में मलाशय, फुफ्फुस, यकृत, त्वचा तथा वृक्क होते हैं। शारीरिक क्रिया में उत्पन्न उत्कृष्टï पदार्थ और आहार का बिना पचा हुआ भाग उत्सर्जन तंत्र द्वारा शरीर के बाहर निकलते रहते हैं। मानव शरीर में जो पथरी बनती है वह सामान्यत: कैल्शियम ऑक्सलेट से बनती है। फुफ्फुस द्वारा हानिकारक गैसें निकलती हैं। त्वचा के द्वारा पसीने की ग्रंथियों से पानी तथा लवणों का विसर्जन होता है। किडनी में मूत्र का निर्माण होता है।
- परिसंचरण तंत्र (Circulatory System)- शरीर के विभिन्न भागों में रक्त का विनिमय परिसंचरण तंत्र के द्वारा होता है। रक्त परिसंचरण तंत्र में हृदय, रक्तवाहिनियां नलियां (Blooad vessels), धमनी (Artery), शिराएँ (veins), केशिकाएँ (cappilaries) आदि सम्मिलित हैं। हृदय में रक्त का शुद्धीकरण होता है। हृदय की धड़कन से रक्त का संचरण होता है। रक्त संचरण की खोज सन 628 में विलियम हार्वे ने किया था। सामान्य व्यक्ति में एक मिनट में 72 बार हृदय में धकडऩ होती है।
- अंत:स्रावी तंत्र (Endorcine system)- शरीर के विभिन्न भागों में उपस्थित नलिका विहीन ग्रंथियों को अंत:स्रावी तंत्र कहते हैं। इनमें हार्मोन बनते हैं और शरीर की सभी रासायनिक क्रियाओं का नियंत्रण इन्हीं हार्मोनों द्वारा होता है। उदाहरण- अवटु ग्रंथि (thyroid gland), अग्न्याशय (Pancreas), पीयूष ग्रंथि (Pituitory Gland), अधिवृक्क (Adrenal gland) इत्यादि। पीयूष ग्रन्थि को मास्टर ग्रन्थि भी कहते हैं। यह परावटु ग्रंथि को छोड़कर अन्य ग्रंथियों को नियंत्रित करती है।
- कंकाल तंत्र (Skeletal System)- मानव शरीर कुल 206 हड्डिïयों से मिलकर बना है। हड्डिïयों से बने ढांचे को कंकाल-तंत्र कहते हैं। हड्डिïयां आपस में संधियों से जुड़ी रहती हैं। सिर की हड़्डी को को कपाल गुहा कहते हैं।
- लसीका तंत्र (Lymphatic System) - लसीका ग्रंथियाँ विषैले तथा हानिकारक पदार्थों को नष्टï कर देती हैं और शुद्ध रक्त में मिलने से रोकती हैं। लसीका तंत्र छोटी-छोटी पतली वाहिकाओं का जाल होता है। लिम्फोसाइट्स ग्रंथियां विषैले तथा हानिकारक पदार्र्थों को नष्ट कर देती हैं और शुद्ध रक्त को मिलने से रोकती है।
- त्वचीय तंत्र (Cutaneous System)- शरीर की रक्षा के लिए सम्पूर्ण शरीर त्वचा से ढंका रहता है। त्वचा का बाहरी भाग स्तरित उपकला (Stratified epithelium) के कड़े स्तरों से बना होता है। बाह्म संवेदनाओं को अनुभव करने के लिए तंत्रिका के स्पर्शकण होते हैं।
- पेशी तंत्र (Muscular System) - पेशियाँ त्वचा के नीचे होती हैं। सम्पूर्ण मानव शरीर में 500 से अधिक पेशियाँ होती हैं। ये दो प्रकार की होती हैं। ऐच्छिक पेशियाँ मनुष्य के इच्छानुसार संकुचित हो जाती हैं। अनैच्छिक पेशियों का संकुचन मनुष्य की इच्छा द्वारा नियंत्रित नहीं होता है।
- तंत्रिका तंत्र (Nervous System)- तंत्रिका तंत्र विभिन्न अंगों एवं सम्पूर्ण जीव की क्रियाओं का नियंत्रण करता है। पेशी संकुचन, ग्रंथि स्राव, हृदय कार्य, उपापचय तथा जीव में निरंतर घटने वाली अनेक क्रियाओं का नियंत्रण तंत्रिका तंत्र करता है। इसमें मस्तिष्क, मेरू रज्जु और तंत्रिकाएँ आती हैं।
- प्रजनन तंत्र- सभी जीवों में अपने ही जैसी संतान उत्पन्न करने का गुण होता है। पुरुष और स्त्री का प्रजनन तंत्र भिन्न-भिन्न अंगों से मिलकर बना होता है।
- विशिष्टï ज्ञानेन्द्रिय तंत्र (Special Organ System)- देखने के लिए आँखें, सुनने के लिए कान, सूँघने के लिए नाक, स्वाद के लिए जीभ तथा संवेदना के लिए त्वचा ज्ञानेन्द्रियों का काम करती हैं। इनका सम्बंध मस्तिष्क से बना रहता है।
पोषण (Nutrition)
पादप अपने कार्बनिक खाद्यों के लिए (कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन और विटामिन) केवल वायुमंडल पर ही निर्भर नहीं रहते हैं, इसलिए इन्हें स्वपोषी (Autotrophs) कहते हैं। कुछ जीवाणु भी सौर ऊर्जा या रासायनिक ऊर्जा का इस्तेमाल कर अपना भोजन स्वयं बना लेते हैं। उन्हें क्रमश: फोटोऑटोट्रॉफ या कीमोऑटोट्रॉफ कहते हैं। दूसरी तरफ जीव, कवक और अधिकांश जीवाणु, अपना भोजन निर्माण करने में सक्षम नहीं हैं और वे इसे वायुमंडल से प्राप्त करते हैं। ऐसे सभी जीवों को परपोषी (heterotroph) कहते हैं।
भोजन (Food)
जीवधारी मुख्यत: ऊर्जा प्राप्त करने के लिए खाते हैं। भोजन के निम्नलिखित अवयव होते हैं-
जीवधारी मुख्यत: ऊर्जा प्राप्त करने के लिए खाते हैं। भोजन के निम्नलिखित अवयव होते हैं-
- कार्बोहाइड्रेट- इसका फार्मूला CN(H2O)N है। इसके स्रोत आलू, चावल, गेहूँ, मक्का, केला, चीनी इत्यादि हैं। इसको तीन भागों में बांटा गया है-
- मोनोसैकेराइड - ये सबसे सरल शर्करा होती हं। उदाहरण- राइबोज़, पेन्टोजेज, ग्लूकोज, फ्रक्टोज आदि।
- डाइसैकेराइड- ये दो मोनोसैकेराइड इकाइयों के जोड़ से बनते हैं। उदाहरण- लेक्टोज, सुक्रोज आदि।
- पॉलीसैकेराइड- ये बहुत सारी मोनोसैकेराइड इकाइयों के जोड़ से बनते हैं। उदाहरण- स्टार्च, ग्लाइकोजेन, सैल्युलोज।
- वसा (Fat) - इन पदार्थों में C, H व O होते हैं, लेकिन रासायनिक तौर पर ये कार्बोहाइड्रेट से बिल्कुल अलग हैं। वसा ग्लिसरॉल और वसीय अम्लों के ईस्टर हैं।
- प्रोटीन (Protein)- ये सामान्यतया C, H, o, N और S से बनते हैं। ये खाद्य जटिल रासायनिक यौगिक होते हैं और छोटी आंत द्वारा नहीं तोड़े जा सकते हैं। ये एंजाइम द्वारा तोड़े जाते हैं। इनके मुख्य स्रोत दूध, अण्डे, मछली, माँस, दालें आदि हैं।
पाचन (digestion)
पाचन की प्रक्रिया में खाने के कण टूटकर अणु बनाते हैं जो इतने छोटे होते हैं कि रक्त प्रवाह में मिल कर जहाँ उनकी आवश्यकता होती हैं वहीं शरीर में वितरित हो जाते हैं।
लगभग 90 प्रतिशत पचा हुआ भोजन और 10 प्रतिशत जल व खनिज छोटी आंत द्वारा अवशोषित किए जाते हैं। 3-6 घंटे के दौरान जब भोजन छोटी आंत में रहता है तब सक्रिय परिवहन और विसरण दोनों ही सरलीकृत पोषकों के अवशोषण के लिए आवश्यक हैं। अमीनो अम्ल, शर्करा, कुछ विटामिन, खनिज और जल अंकुरों की कोशिकाओं में प्रवेश कर जाती हैं। लेकिन वसीय अम्ल और ग्लीसरॉल सूक्ष्म बिंदुकों के रुप लैक्टील में प्रवेश करते हैं।
विटामिन | आवश्यकता |
विटामिन A | ५००० IU* |
विटामिन - B कॉम्पलेक्स थायोमीन | 1.5 मिग्रा. |
राइबोफ्लेविन | 1.8 मिग्रा |
नियासिन | 18 मिग्रा. |
विटामिन B6 | 2 मिग्रा |
पेन्टोथेनिक एसिड | 10 मिग्रा |
विटामिन C या एस्कॉर्बिक एसिड | 75 मिग्रा. |
विटामिन D | ४०० IU* |
विटामिन K | ** |
* अंतर्राष्ट्रीय यूनिट | |
** शरीर की आंत के जीवाणुओं द्वारा संश्लेषित |
एक संतुलित आहार में पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट, जल और खनिज पदार्थ उचित अनुपात में और विटामिन प्रचुर मात्रा में होने चाहिए। इन सभी पदार्थों की पोषक विशेषताएँ निम्न हैं-
- प्रोटीन- इन्हें जीवन की सामग्री कहते हैं। एक ग्राम प्रोटीन के पूर्ण दहन पर 5-6 kcal मिलती है। इसलिए प्रोटीन की दैनिक औसत जरूरत 55 से 70 ग्राम होती है।
- कार्बोहाइड्रेट- कार्बोहाइड्रेट पाचन में मुख्य अंतिम उत्पाद ग्लूकोज होता है। इसका ऊर्जा उत्पादन में सक्रियता से उपयोग होता है। एक ग्राम ग्लूकोज के पूर्ण दहन पर 4.2 Kcal निकलती है। कार्बोहाइड्रेट की दैनिक आवश्यकता 400-500 ग्राम होती है।
- वसा- वसा ऊर्जा का मुख्य स्रोत है जिसके एक ग्राम के पूर्ण दहन से 9.0 Kcal कैलरी ऊर्जा मिलती है। एक सामान्य आहार में करीब 75 ग्राम वसा होनी चाहिए। वसा की कमी से कुछ अपूर्णता रोग हो जाते हैं।
- खनिज- ये कोशिका और ऊतक की भौतिक दशा को कायम रखने में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कैल्शियम, सोडियम, पौटेशियम, आइरन इत्यादि प्रमुख खनिज हैं।
- विटामिन - इनकी आवश्यकता अल्प मात्रा में होती है, लेकिन इनकी कमी से अपूर्णता रोग हो जाते हैं। विटामिनों की न्यूनतम आवश्यकता निम्न तालिका में दी गई है-
विशिष्ट कैलोरी आवश्यकताएँ
कैलोरी की मात्राएँ आवश्यकता लिंग, आयु, कार्य की प्रकृति और पर्यावरण पर निर्भर करती है। आहार ग्रहण करने से उपापचय 10 प्रतिशत उद्दीप्त (stimulate) हो जाता है। 8 घंटों के आराम के दौरान, हल्की फुल्की क्रियाओं में, ऊर्जा व्यय ४० Kcal प्रति घण्टा तक बढ़ जाता है।
कोशिका (cell) कैलोरी की मात्राएँ आवश्यकता लिंग, आयु, कार्य की प्रकृति और पर्यावरण पर निर्भर करती है। आहार ग्रहण करने से उपापचय 10 प्रतिशत उद्दीप्त (stimulate) हो जाता है। 8 घंटों के आराम के दौरान, हल्की फुल्की क्रियाओं में, ऊर्जा व्यय ४० Kcal प्रति घण्टा तक बढ़ जाता है।
1665 में सर्वप्रथम रॉबर्ट हुक ने कोशिका (cell) का वर्णन किया था। दो जर्मन जीव वैज्ञानिकों - एम. श्लाइडन और टी. श्वान ने 1838-39 में कोशिका सिद्धान्त (cell theory) प्रतिपादित किया, जिसके अनुसार सभी जीवों का निर्माण कोशिकाओं से होता है।
प्रोकैरिओट और यूकैरिओट कोशिकाएँ
जीवधारियों में दो प्रकार के कोशकीय संगठन हैं। एक प्रकार है प्राककेन्द्रकी (प्रोकैरिओट) जिनमें केंद्रक झिल्लीबद्ध नहीं होता, जबकि सुकेन्द्रकी (यूकैरिओट) में एक सुस्पष्टï केंद्रक दो झिल्लियों से घिरा होता है। कोशिका के मुख्य अवयव निम्न हैं-
- कोशिका भित्ति- सभी जीवाणु व हरे-नीले शैवाल की कोशिकाएँ एक दृढ़ कोशिका भित्ति से बद्ध होती हैं, जो पादप के समान किंतु प्राणियों से भिन्न हैं, जिसके कारण उन्हें प्राय: पादप वर्ग में शामिल किया जाता है।
- जीवद्रव्य कला- सभी जीव कोशिकाएं एक विभेदक पारगम्य झिल्ली द्वारा घिरी होती हैं जिसे जीवद्रव्यकला कहते हैं। यह कोशिका के बाहर और भीतर पदार्थों की गति का नियंत्रण करती है।
- केंद्रक- सभी यूकैरियोट जीवों में एक सुस्पष्टï केंद्रक (nucleus) होता है। यह केंद्रक सभी कोशिकीय क्रियाओं का नियंत्रण केंद्र है।
- हरित लवक- यह प्रकाश संश्लेषण क्रिया के केंद्र हैं, इसलिए सिर्फ प्रकाश संश्लेषित पादप कोशिकाओं में ही पाए जाते हैं।
- सूत्रगुणिका- यह एक दुहरी झिल्लीबद्ध कोशिकांग है। यह ऊर्जा उत्पादन से सम्बंधित है। इसलिए इनको कोशिका का शक्ति केंद्र (power house) कहते हैं।
- राइबोजोम - राइबोजोम प्रोटीन संश्लेषण का केंद्र होते हैं और प्रोकैरिओट व यूकैरिओट- दोनों कोशिकाओं में पाए जाते हैं।
- लाइसोसोम - लाइसोसोम अपघटन एंजाइम की थैलियाँ हैं, जो बहुत सारे पदार्थों को अपघटित करती हैं।
- तारक केंद्र (centrioles) - तारक केंद्र सभी प्राणियों और कुछ निम्न पादपों में पाए जाते हैं। यह मुख्यत: सूत्रीविभाजन तर्कु (Mitotic Spindle) या पक्ष्याभ (Celia) आदि के संगठन से सम्बंधित होते हैं।
कोशिका विभाजन (Cell Division)
प्रत्येक जीव जिसमें जनन लैंगिक क्रिया द्वारा होता है, का जन्म एककोशीय युग्मनज (Zygote) से होता है, जिसके बार-बार विभाजित होने से शरीर की अनेक कोशिकाएँ बनती हैं। इस विभाजनों के बगैर इतने प्रकार के ऊतक (tissues) और अंग (organ) नहीं बन पाते। यह विभाजन दो चरणों में पूरा होता है। केंद्रक विभाजन जिसे सूत्रीविभाजन (mitosis) कहते हैं और कोशिका विभाजन (Cytokinesis) कहलाता है।
- सूत्रीविभाजन (Mitosis) - सूत्रीविभाजन जीवों की कायिक कोशिकाओं (Somatic cells) में होता है। इसलिए इसे कायिक कोशिका विभाजन भी कहते हैं। चूंकि गुणसूत्र संख्या सूत्रीविभाजन के दौरान समान ही रहती है यानी संतति कोशिकाओं (Daughter cells) की गुणसूत्र संख्या जनक कोशिका जितनी ही रहती है, इसलिए इसे समसूत्री विभाजन (equational division) भी कह सकते हैं।
- अद्र्धसूत्रीविभाजन (Meiosis) - सूत्रीविभाजन के विपरीत इसमें गुणसूत्र संख्या कम होकर आधी रह जाती है, क्योंकि इसमें पूरे गुणसूत्र समजात गुणसूत्र (homologus chromosomes) अलग हो जाते हैं न कि उनके अद्र्धगुणसूत्र। संतति कोशिकाओं में गुणसूत्र संख्या जनन कोशिका से आधी होने के कारण इस विभाजन को न्यूनीकरण विभाज(reductional division) भी कहते हैं।
जीवधारी : लक्षण एवं वर्गीकरण
जीव विज्ञान जीवधारियों का अध्ययन है, जिसमें सभी पादप और जीव-जंतु शामिल हैं। विज्ञान के रूप में जीव विज्ञान का अध्ययन अरस्तू के पौधों और पशुओं के अध्ययन से शुरू हुआ, जिसकी वजह से उन्हें जीव विज्ञान का जनक कहा जाता है। लेकिन बायोलॉजी शब्द का प्रथम बार प्रयोग फ्रांसीसी प्रकृति विज्ञानी जीन लैमार्क ने किया।
जीवधारियों के लक्षण:- संगठन (organisation) - सभी जीवों का निर्धारित आकार व भौतिक एवं रासायनिक संगठन होता है।
- उपापचय (Metabolism) - पशु, जीवाणु, कवक आदि अपना आहार कार्बनिक पदार्थों से ग्रहण करते हैं। हरे पादप अपना आहार पर्यावरण से जल, कार्बन-डाइऑक्साइड और कुछ खनिजों के रूप में लेकर उन्हें प्रकाश संश्लेषण के द्वारा संश्लेषित करते हैं।
- वृद्धि व परिवर्धन- जीवधारियों में कोशिका के विभाजन और पुनर्विभाजन से ढेर सारी कोशिकाएं बनती हैं, जो शरीर के विभिन्न अंगों में विभेदित हो जाती हैं।
- जनन (Reproduction) - निर्जीवों की तुलना में जीवधारी अलैंगिक अथवा लैंगिक जनन द्वारा अपना वंश बढ़ाने की क्षमता द्वारा पहचाने जाते हैं।
जीवधारियों का वर्गीकरण (Classification of Living Organism) -द्विपाद नाम पद्धति (Binomial Nomenlature) के अनुसार हर जीवधारी केे नाम में दो शब्द होते हैं। पहला पद है वंश (Generic) नाम जो उसके संबंधित रूपों से साझा होता है और दूसरा पद एक विशिष्टï शब्द होता है (जाति पद)। दोनों पदों के मिलने से जाति (species) का नाम बनता है। 1969 में आर. एच. व्हीटेकर ने जीवों को 5 जगतों (Kingdoms) में विभाजित किया। ये पाँच जगत निम्नलिखित हैं-- मोनेरा (Monera)- इस जगत के जीवों में केंद्रक विहीन प्रोकेरिओटिक (procaryotic) कोशिका होती है। ये एकल कोशकीय जीव होते हैं, जिनमें अनुवांशिक पदार्थ तो होता है, किन्तु इसे कोशिका द्रव्य से पृथक रखने के लिए केंद्रक नहीं होता। इसके अंतर्गत जीवाणु (Bacteria) तथा नीलरहित शैवाल (Blue Green algae) आते हैं।
- प्रोटिस्टा (Protista)- ये एकल कोशकीय (Unicellular) जीव होते हैं, जिसमें विकसित केंद्रक वाली यूकैरियोटिक (Eucaryotic) कोशिका होती है। उदाहरण- अमीबा, यूग्लीना, पैरामीशियम, प्लाज्मोडियम इत्यादि।
- कवक (Fungi)- ये यूकैरियोटिक जीव होते हैं। क्योंकि हरित लवक और वर्णक के अभाव में इनमें प्रकाश संश्लेषण नहीं होता। जनन लैंगिक व अलैंगिक दोनों तरीके से होता है।
- प्लान्टी (Plantae) - ये बहुकोशकीय पौधे होते है। इनमें प्रकाश संश्लेषण होता है। इनकी कोशिकाओं में रिक्तिका (Vacuole) पाई जाती है। जनन मुख्य रूप से लैंगिक होता है। उदाहरण- ब्रायोफाइटा, लाइकोपोडोफाइटा, टेरोफाइटा, साइकेडोफाइटा, कॉनिफरोफाइटा, एन्थ्रोफाइटा इत्यादि।
- एनीमेलिया (animalia)- ये बहुकोशिकीय यूकैरियोटिक जीव होते हैं जिनकी कोशिकाओं में दृढ़ कोशिका भित्ति और प्रकाश संश्लेषीय तंत्र नहीं होता। यह दो मुख्य उप जगतों में विभाजित हैं, प्रोटोजुआ व मेटाजुआ।
मुख्य प्राणी संघ निम्न हैं-- प्रोटोजुआ- यह सूक्ष्मजीव एककोशकीय होते हैं। उदाहरण- ट्रिपैनोसोमा, यूग्लीना, पैरामीशियम, प्लाज्मोडियम आदि।
- पोरीफेरा- इनका शरीर बेलनाकार होता है। उदाहरण- साइकॉन, यूस्पंजिया, स्पंजिला।
- सीलेनट्रेटा- यह पहले बहुकोशकीय अरीय सममिति वाले प्राणी हैं। इनमें ऊतक और एक पाचक गुहा होती है। उदाहरण- हाइड्रा, जैली फिश आदि।
- प्लेटीहेल्मिन्थीज- इन प्राणियों का शरीर चपटा, पतला व मुलायम होता है। यह कृमि जैसे जीव होते हैं। उदाहरण- फेशिओला (लिवर फ्लूक), शिस्टोजोमा (रक्त फ्लूक) आदि।
- एश्स्केलमिन्थीज- यह एक कृमि है जिनका गोल शरीर दोनों ओर से नुकीला होता है। उदाहरण- एस्केरिस (गोलकृमि), ऑक्सियूरिस (पिनकृमि), ऐन्साइलोस्टोमा (अंकुशकृमि) आदि।
- ऐनेलिडा- इन कृमियों का गोल शरीर बाहर से वलयों या खंडों में बंटा होता है। उदाहरण- फेरेटिमा (केंचुआ), हिरूडिनेरिका (जोंक) आदि।
- आर्थोपोडा- शरीर खण्डों में विभक्त होता है जो बाहर से एक सख्त काइटिन खोल से ढंका होता है। उदाहरण- क्रस्टेशिआन (झींगा), पैरीप्लेनेटा (कॉकरोच), पैपिलियो (तितली), क्यूलेक्स (मच्छर), बूथस (बिच्छू), लाइकोसा (वुल्फ मकड़ी), स्कोलोपेन्ड्रा (कनखजूरा), जूलस (मिलीपीड) आदि।
- मोलास्का - इन प्राणियों की देह मुलायम खण्डहीन होती है और उपांग (ड्डश्चश्चद्गठ्ठस्रड्डद्दद्गह्य) नहीं होते। उदाहरण- लाइमेक्स (स्लग), पटैला (लिम्पेट), लॉलिगो (स्क्विड) आदि।
- एकाइनोडर्मेटा- इसमें शूलीय चर्म वाले प्राणी शामिल हैं। ये कई मुलायम नलिका जैसी संरचनाओं से चलते हैं, जिन्हें नाल पाद (ट्यूबफीट) कहते हैं। उदाहरण- एस्ट्रोपैक्टेन (तारामीन), एकाइनस (समुद्री अर्चिन) आदि।
- कॉर्डेटा - संघ कॉर्डेटा पाँच उपसंघों में विभाजित किये जाते हैं-
- हेमीकॉर्डेटा - इनमें ग्रसनी, क्लोम, विदर और पृष्ठïीय खोखली तंत्रिका रज्जु पाई जाती है। उदाहरण- बैलेनोग्लोसस (टंग वार्म)।
- यूरोकॉर्डेटा- इन थैली जैसे स्थिर जीवों में वयस्क अवस्था में तंत्रिका रज्जु और पृष्ठï रज्जु (नोटोकार्ड) नहीं होता। उदाहरण- हर्डमेनिया, डोलियोलम (कंचुकी) आदि।
- सिफेलोकॉर्डेटा- इन प्राणियों में कॉर्डेटा संघ के विशिष्टï लक्षण मौजूदा रहते हैं। उदाहरण- ब्रेंकियोस्टोमा (ऐम्फिऑक्सस) आदि।
- ऐग्नेथा- यह कशेरूकियों का एक छोटा सा समूह है जिसमें चूषण मुख होता है। ऐसे प्राणियों को चक्रमुखी (साइक्लोस्टोम) कहते हैं।
- नैथोस्टोमाटा- इसमें मछलियाँ, उभयचर (एम्फीबिया), सरीसृप, पक्षी तथा स्तनधारी प्राणी शामिल हैं। यह उप संघ पाँच वर्गों में विभाजित किया जाता है-
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- पिसीज- ये जलीय, असमतापी, जबड़े वाले कशेरुकी हैंै जो जीवन भर जल में रहने के लिए अनुकूलित हैं। इनके शरीर शल्कों से ढंके रहते हैं, क्लोमो द्वारा ये श्वसन करती हैं और पंखों (द्घद्बठ्ठ) की मदद से चलते हैं। उदाहरण - लैबियो (रोहू), कतला (कटला), हिप्पोकैम्पस (समुद्री घोड़ा) आदि।
- ऐम्फीबिया - यह असमतापी कशेरूकी हैं जिनमें चार टांगें और शल्कहीन चर्म होते हैं जो ज्यादातर गीला रहता है। उदाहरण- राना टिगरीना (मेंढक), बुफो (टोड), सैलेमेन्ड्रा (सलामेन्डर) आदि।
- रेप्टीलिया- इन असमतापी कशेरूकियों में सख्त शल्कीय त्वचा होती है। उदाहरण- टेस्टूडो (कछुआ), हेनीडैक्टाइलस (छिपकली), क्रोकोडाइलस (मगरमच्छ) आदि।
- एवीज (पक्षीवर्ग)- पक्षी ही ऐसे जीव हैं जिनका शरीर पंखों से ढंका रहता है। इनके अग्रपाद पंखों में रूपांतरित होकर उड़ान में काम आते हैं। उदाहरण पैसर (गौरैया), कोर्वस (कौआ), कोलंबा (कबूतर), पावो (मोर) आदि।
- मैमेलिया (स्तनी वर्ग)- ये समतापी कशेरूकी सबसे उच्च वर्ग के हैं। इनका शरीर बालों से ढंका रहता है। इनमें दुग्ध-ग्रंथियाँ होती हैं जिससे वे नन्हें बच्चों का पोषण करते हैं। उदाहरण- डक बिल्ड प्लैटिपस और स्पाइनी चींटीखोर, फैलिस (बिल्ली), कैनिस (कुत्ता), पैन्थरा (शेर, चीता, बाघ) मकाका (बंदर), ऐलिफस (हाथी), बैलीना (व्हेल), होमो सेपिएन्स (मानव) आदि।
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